कुछ बने हालात ऐसे कुछ रही मजबूरियां |
हर बार उठने की कोशिश मे हर बार गिरता ही गया ||
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बंद पलकों मे मैंने कई ख़वाब देखे थे मगर |
आज खुली आँखों से मेरे कोई खवाब सारे ले गया ||
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अश्क आखों से निकलते हुए भी थमते नहीं |
एक तुम्हारा गम मुझे हजार समुंदर दे गया ||
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चंद लकीरें हाथ की बदलने की कुव्वत रखता था |
आज उन्ही लकीरों को मै देखता ही रह गया ||
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शायद कहीं वजूद की बुनियाद ही कमजोर थी |
वरना एक बरसात मे मकान कैसे ढह गया ||
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दिलीप अग्निहोत्री